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“आशा” की किरण

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**शीर्षक: आशा की किरण** दिल्ली के एक छोटे से मोहल्ले में रहने वाली प्रिया की उम्र महज़ 22 साल थी, लेकिन उसकी ज़िम्मेदारियाँ किसी परिपक्व वयस्क से कम नहीं थीं। उसकी माँ का निधन तब हुआ था, जब वो सिर्फ़ 16 साल की थी। उसके पिता, विजय, एक स्थानीय दुकान पर काम करते थे, जहाँ से मुश्किल से घर का खर्चा चलता था। घर की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करना भी कभी-कभी मुश्किल हो जाता था। प्रिया के दो छोटे भाई-बहन थे—राहुल और पायल। माँ के जाने के बाद, प्रिया ने ही दोनों की देखभाल की ज़िम्मेदारी उठाई थी। उसने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी ताकि घर का काम संभाल सके और अपने भाई-बहन की पढ़ाई में मदद कर सके। मोहल्ले के लोग उसे देखते और कहते, "बिना माँ की लड़की ज़्यादा क्या कर पाएगी?" लेकिन प्रिया के इरादे मजबूत थे।  प्रिया का सपना था कि वो एक दिन आईएएस अफ़सर बने, ताकि वह अपने परिवार को बेहतर जीवन दे सके। हर सुबह जब वह अपने भाई-बहन को स्कूल भेजती, तो मन ही मन सोचती कि एक दिन वह भी वापस स्कूल जाएगी। लेकिन दिनभर घर का काम, भाई-बहन की देखभाल और फिर मोहल्ले की महिलाओं के ताने सुनकर उसके हौसले टूटने लगते।