“लॉकडाउन - मज़दूर - मज़बूर - भूख और मौत”



"पेड़ की भूमिका"
“चलिए हम आपको लेख पढ़ने से पहले। इसकी भूमिका के बारे में थोड़ा समझा देते हैं।आप इसको नाटक/कहानी/वार्तालाप/लेख जो भी कहे पर हर शब्द उनकी ज़ुबानी। इस लेख को बयान किरदार करते हैं.और हम यानि “इज़हार आलम” अपनी कलम से लिखते हैं। किरदार हमारे घर के सामने वाला पेड़ हैं। इस पेड़ के पत्तों के साथ साथ-साथ इस रहने वाले परिंदे। जो घोंसला बना कर इस पेड़ रहते हैं। पेड़ के क़िरदार या पात्र कहें सब पर्यावरण के मित्र हैं। जैसे - पेड़ के पत्तों में से पहला किरदार “हसमुख और दूसरा- “दोमुख” इसी तरह और भी नाम हैं इस पेड़ के पत्तो के। “चील आंटी” (जिनका बड़ा सा घोसला बना हैं इस पेड़ पर), “तोते मियाँ”,गुररिया”(छोटी चिड़िया जो लुप्त हो गई), “कोयल” ओर बोहोत सारे परिंदे जो इस पेड़ पर रोज़ सुबह आ कर बैठ जाते हैं और बतियाते हैं । इनकी जुबानी आपके लिए।”

“लॉकडाउन - मज़दूर - मज़बूर - भूख और मौत”



बेचारा कितनी दूर जायेगा इसका तो चलते चलते दम न निकल जाये,” -  “हा ये खबर देखो एक्सीडेंट में दो लोग मारे गए। पिछले महीने भी एक ही फेमली के चार लोगो को ट्रक ने टक्कर मार दी थी जिससे पूरा परिवार ही ख़त्म हो गया था. ऐसी ढेरो घटना, अब लोगो के लिए कहानियां बन गई हैं।  इस लॉक डाउन में कम्बख्त ये कोरोना। कुछ दिन ही हुए थे के दिल्ली के नार्थ -ईस्ट ज़िले में दंगो की वजह से लोगो का पलायन हुआ था। लोग दिल्ली छोड़ अपने गॉंवो को वापस लोट गए थे। अभी हममें उसका दर्द कम नही हुआ था के इस कोरोना ने आकर लोगो को एक न मुसीबत में डाल दिया घर से बहार निकलो तो जान लेवा कोरोना वाइरस बैठा लगने को , हम तो फिर भी अपने घरो में सुरक्षित हैं पर इन गरीब मजलूमो मज़दूरों की हालत ज्यादा ख़राब हैं खाने की दिकत और फिर रहने की दिक़्क़त हैं ये दुरी कैसे मेंटेन करेंगे।  रोज़ इनके पलायन की खबरों के साथ इनके बेबस मज़दूरों की मरने की खबर आती हैं. रोज़ की तरह परसो भी गरीब मजदूर रेल की पटरी पटरी अपने घर बिहार जा रहे थे।  थक गए तो। कही समतल ज़मीन न न होने की वझे से उसी उबड़ खाबड़ पत्थरों वाली रेल की पटरी पर ही आराम करने लगे।  वो अनजान थे के सरकार मॉल गाड़ी तो चला ही सकती थी। सरकार ने माल गाड़ी को आने जाने की हिदायत दी हुई हैं पर इंसानो को लेजाने की इज़ाजत नहीं थी. “बस फिर क्या ”- ये कहता हुआ तोत्ता रोने लगा , तोते को रोता देख सब पर मातम छा सा गया।  धीरे से दोमुख ने पूछा भाई मिट्ठू -“क्या हुआ भाई बताओ तो क्या हुआ उन मज़दूरो का।” - चिड़िया भी, तोते को देख रोने लगी। हसमुख ने भी तोते से पूछा भाई मिट्ठु बताओ तो सही”. तोते के आंसू  थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. ढांढस बांधता हुआ तोते ने कहा” -”भाई चौदह मज़दूर सोते हुए उसी रेलवे पटरिओ  पर अपनी जान गवां बैठे, ट्र्रेन के ड्रावर  ने ट्रेन रोकने की बोहोत कोशिश की पर वो उनको छह कर भी बचा न सका। और चोह्दा मज़दूर कट गए”- ये कह कर तोता जोर जोर से रोने लगा। सभी के आँखों में आँसू थे और सभी इस दर्द भरी दास्तां को सेहेन नहीं कर पा रहे थे। इनको तो छोडो चील आंटी तो बोहोत कठोर होती हैं।  पर चील के भी आँखों में पानी आ गया था। उसने सभी को डाटा- “सब चुप हो जाओ, जो होना था वो हो गया।”-  पर कोई चुप नहीं हो रहा था। दर्द ही इतना बड़ा था।  उस पेड़ का हर पत्ता और उस पर बैठा हर परिंदा रो रहा था.


जैसे इनके कोई अपने हो, इंसान नहीं। चील आंटी ने फिर कहा। “इंसान थे तो क्या हुआ क्या हम दुखी नहीं हो सकते। अपनो से भी बढ़ कर होते हैं इंसान:- इंसान हमारा भी ख्याल रखते हैं तो क्या हमारा दिल उनसे नहीं जुड़ा”- चिड़िया ने जवाब दिया।  सभी ने चिड़िया की कही बात को पानी दिया।  कोयल ने तोते से कहाँ - “मिट्ठू सुना हैं वहां रोटी पड़ी मिली थी”- “ हाँ वहा रेल की पटरीयो पर रोटियां ही पड़ी थी. बाकी तो रेल और सरकार लें गई,सब ख़त्म हो गया था”- “दोस्त वो रेल की पटरी पर ही क्यूँ सोएं थे. सड़क पर, कही मकान की आड़ में सो जाते” - गुरैया ने हसमुख से साल किया था।  हसमुख ने जवाब दिया - “कह तो ठीक रही हो गुरइया गुड़िया पर इंसान जब परेशानी में मुब्तल(1)  हो जाता हैं तो उसको सिर्फ अपना घर के अलावा कुछ नहीं दिखता हैं रूखी सूखी खाकर गुज़ारा कर लेगा , घर, घर ही होता हैं।  खेतो में मेहनत से कुछ ऊगा कर कमा लेगा और कुछ लोग आस पास मज़दूरी करके कुछ तो कमा ही लेंगे। यह शहर तो पराया हैं”.- तोते ने बीच में ही जवाब पूरा किया - “बोहोत से इंसान परेशानी में मुब्तला नहीं होते गुरैया, इंसान में गरीब तबक़ा ज्यादा परेशानी उठता हैं क्यूँ की उसको अपना पेट पलने के लिए अपना घर बार छोड़ अपने माँ बाप को छोड़ अपने बच्चो को छोड़ सब कुछ छोड़ कर शहर आता हैं, ताकि दो वक़्त की रोटी अपने परिवार को खिला सके। पर वही दो वक़्त की रोटी, दो ग़ज़ ज़मीन यानी  क़ब्र बन जाती हैं उसको पता भी नहीं चलता के कब रोटी की चाहत में उसके हाथो में गाठे पड जाती हैं। एक जोड़ी चप्पल में कब उसका पैर सड़क को चिढ़ाने लगता हैं। पता ही नहीं चलता सड़क . पैर चपलो से झांक कर सड़क से कहता हैं देखता हूँ के आज़ तू पहले जीतती हैं या में पहले जीतूंगा पर सायद पैर को मालूम नहीं तुझे जीता भी  दिया, तो भी, सड़क ही जीतेगी, क्यूँ की घिसना उसे नहीं तुझे हैं पहले।”-  हसमुख ने बात सुनते हुए तोते को बीच में ही लुक्मा दिया - "गरीब का अपना एक चस्मा होता हैं शहर का उसका अलग ही रंग रूप दिखता हैं  उसका चस्मा उसको और उसके अपनों को भर पेट खाना दिखता हैं. शहर की चका-चोँद दिखता।  बेटी की शादी के लिए पैसे और बीमार माँ बाप के खर्च के लिए रुपए दिखता हैं। उसका चमा उसको अपना गाँव  नहीं दिखता,अपनी ज़मीन नहीं दिखता, दिखता हे तो बस उसको मजबूरी और खाली पेट हैं। इसी चश्मे से जिंदगी के बीच उसको एक दिन अपना पक्का मकान और खाने की कभी कमी न होने का झूटा वादा दिखता हैं”- चील आंटी ने भी बीच  ही में मज़दूरों पर हो रही बात को आगे बढ़ाया - “होता इसका उल्टा हैं उनका चश्मा सबसे पहले उनका ठेकेदार उतारता हैं और उनको उनकी ओकात से कम रुपए (धियाड़ी) देता हैं।  जो वादा करके ठेकेदार लता हैं उसका वादा झूठा और मक्कारी जैसा निकलता हैं जिस कंपनी में लगता हैं या जिस सुपरवाइज़र के पास लगता हैं उसका शोषण वही से शुरू हो जाता हैं। कंपनी से मजदूरोको 800/- रुपए मिलते हैं तो उन तक 400/- ही पहुंचते  हैं। ये ठेकेदार तो मामूली सी मछलियाँ हैं. इनसे भी बड़ी बड़ी मछलियाँ हैं इस जहाँ में.  ये वो मछलियाँ  हैं जिनको आप नेता कहते हैं।” - वो क्या करते हैं चील आंटी”- दोमुख ने मासूमियत से सवाल किया था - चील आंटी ने जवाब दिया। क्यूँ की चील ही इन नेताओ के करीब होती हैं इनकी हर चाल से वाक़िफ़ होती हैं। आंटी बोली - “नेता बड़े बड़े कमरों में AC. की ठंडी-ठंडी हवाओ, नरम गद्दों के सोफों पर बैठ कर  मज़दूरों के लिए कानून बनाते हैं और वह साथ बैठे बड़े बड़े  कॉर्परट घराने और बड़ी बड़ी इंडस्ट्री वाले साथ बैठ कर अपने मन पसंद का कानून बनवाते हैं.” तोते नए कहा - “ सही कहा आंटी , उनको क्या पता मज़दूरों को क्या चाहिए। कानून बनाने वाले नेता तेज़ धूप में बहार आ कर, कुछ समय मज़दूरों के साथ बैठ कर बिताएं। ताकि देखें मज़दूरों की क्या परेशानी होती हैं। सायद उनके दर्द का एहसास हो जाये।” - हसमुख, दोमुख की तरफ देखता हुआ मुखातिब हुआ - “भाई दोमुख इन मज़लूम मज़दूरो को रेल  की पटरी पर ही क्यूँ  चलना पड़ा”. - “अभी अपने घर रुकते जब कोरोना ख़त्म हो जाता या सरकार बस रेल का इंतज़ाम करके चलाती, तब चले जाते ऐसी भी क्या जल्दी थी”- दोमुख ने दुःख भरे लहज़े में कहा - “दोस्तों चोट जिसको लगती हैं पट्टी भी उसी को ही बांधना होता हैं. ठीक ठाक इंसान क्यूँ बंधेगा। इन मज़लूमो बेबस मज़दूरों को इसी तरह की चोट लगी थी, तो पट्टी भी उन्हें ही बांधनी होंगी। जब इन गरीब मज़दूरों को शहरों में खाना पीना ख़त्म हो जाये, पैसे खत्म हो जाये तो क्या करे, साथ ही जिस मकान में रहते हैं उसका मालिक किराया मांगता हो।  मकान कहते हुए मुझ शर्म आ रही हैं मकान नहीं पिंजड़े कहना सही होगा एक छोटे से कमरे में 10-10 लोग अपनी जिंदगी बिताने को मजबूर हो. कमाई तो 400 की दिहाड़ी। या 4000/- से 6000/- महीने की तन्खुआ वो भी टाइम पर नहीं मिलती। पैसा घर भी भेजना होता हैं।  बीवी बच्चे राह देखते हैं के मनीऑडर से पैसे आएँगे तो हम अच्छा खाना खाएंगे, त्यौहार आने वाले हैं नए नए कपड़े बनाएँगे। …” -  समुख एक लम्बी साँस लेता हैं और चुप हो कर बैठ जाता हैं। 
कुछ मिनट शांति के बाद चिड़िया ने आगे की बात पूरी की - “कोयल बेहेन अपने नहीं सुना होगा कभी के बच्चों को झूटी तस्सल्ली देता हो मज़दूर। जब उनके लिखे खत गावँ में पहोचते हैं तो उनके घर वालो को हसीन सपने दिखता हैं, के में जब आऊंगा तो फला -फला चीज़ लाऊंगा, पर उनको नहीं पता होता के अब सायद वो कभी घर ही नहीं आएगा।

बाप के पास यहाँ एक टाइम का खाना भी मिलना मुश्किल हो रहा हैं।  यहाँ 3 महीने का कमरे का किराया नहीं दे पा रहा हैं. और मकान मालिक किराया न देने पर मकान खाली करने को कह देता हैं। किराया न देने पर उसका सामान फिकवा देता हैं, और लोग देखते रहते हैं. क्यूँ  की वो ग़रीब  मज़दूर हैं यही उसकी गलती हैं. गरीब जाये तो कहा जाये।  सरकार बस इनकी ही नहीं सुनती बाकी की कुछ तो सुन लेती हैं। मज़दूरों के कानून में कुछ बचा था.  पर कानून जो बना बनाया कानून था उसको तीन राज्यों की सरकार ने सस्पेंड कर दिया, अब उसके हाथ में कुछ बचा ही नहीं।”
आज भी कुछ मज़दूरों के मरने की खबर आई हैं, कही 2 मरे कही 1 मज़दूर। अरे में सामने ललन के बगल वाले के यहाँ TV पर देख रही थी, उसमें NDTV के एक रिपोर्टर ने नागपुर हाईवे पर एक छोटे टेम्पो वाले का इंटरव्यू करा था. शाम को वापस आते हुए वही टेम्पो रस्ते में एक्सीडेंट हुआ पड़ा था। जिसका सुबह उसने इंटरवियु किया था वो अब इस दुनिया में नहीं था उसके छोटे  छोटे दो बच्चे और बीवी, तीनो को गंभीर चोट लगी हैं उस रिपोर्ट से वो खबर के बारे में जानकारी हुआ गाला भर आया था.” 
“ये हो क्या रहा. सरकार इनके लिए कुछ क्यूँ नहीं करती क्या ये इंसान नहीं क्या ये इंडियन नहीं क्या ये रिफ्यूजी हैं जो NRC में इनका नाम लिखा हैं जिसका कोई देखरेख नहीं, इनकी जान की कोई कीमत नहीं, अब उन लोगो का क्या होगा जिनके कमाने वाले चले गए जिनके पास अब कोई नहीं हैं जो दो जून की रोटी  कमा कर खिला सके।”- और ये कह कर कोयल रोने लगी। उसके आँसू रोक नहीं रहे थे। 
तोते मिया ने कोयल के कंधे पर अपना हाथ रखते  हुए कहा -” जानते हो लिखने वाले के एक दोस्त ने मज़दूरों के दर्द को आमने सामने महसूस किया हैं।  उनके दर्द को महसूस में उसको पूरा अंदर तक हिला कर रख  दिया। वो उन मज़दूरों से मिलने आनंद विहार रेलवे स्टेशन चला गया. जहाँ उनको सड़क पर पैदल चलते मज़दूर दिखाई दिए। जिनकी हालत देख सायद आप रोने लगे। कपड़े मेले कुचले, (वीडियो जरूर देखें ) पैरों में टूटी फूटी चप्पल और चेहरे पर अजीब सी थकान साफ दिखाई दे रही थी।  खाने को पूछने पर उनका सर न में हिला।  उनके पास कुछ नहीं था। बस वो घर जाना चाहते थे। वो पैदल ही बिहार अपने घर जा रहे थे। उनको यहाँ कोई रेल या बस नहीं मिली थी।  उसके दोस्त ने उनके दर्द को अपना दर्द समझाता हुआ अपनी जानिब (४) से उनको कुछ पैसे दिए. ताकि वो लोग रास्ते में कुछ ख़रीद कर खा सके. बस का इंतज़ाम तो नहीं हो पाया वो मज़दूर फिर से पैदल चलने लगे थे .


उन मज़दूरों की दर्द भरी (रोने) आवाज़ शायद मुझ तक या आप लोगो को नहीं सुनाई देती हो पर अभी भी ऐसे इंसान बाकी हैं जो इन लोगो की मदद करने के लिए आगे आ रहे है। जिसमें  न्यूज़ एंकर हो या तस्लीम नाम जैसे और बोहोत जैसे लोग हो।” अल्लाह इनके सभी के देने को कबूल फरमाए और आगे भी जारी रखने की हिदायत देता रहे। इसी तरह गुरुद्वारे वाले हो, या मुस्लिम हो या फिर हिन्दू हो। किसी भी धर्म का इंसान हो. बस हो इंसान।  तो सायद इन मज़दूरों के साथ साथ उन लोगो का कुछ न कुछ होता रहेगा जिनके पास घर तो हैं पर खाना नहीं , अब इंसान को अपने पड़ोस को भी देखना चाहिए सायद वहाँ भी जरुरत हैं।’  - “हा”-  हसमुख  ने कहा।    
 “अगर ये लिखने वाला लिखता जाये तो भी हम सुबह से  रात कर दें। और रात से सूरज निकाल तक, ये थक जायेगा। पर हमारी इन मज़दूरों की बाते काम ना होंगी ।  
लेखक
इज़हार आलम
(WRITERDELHIWALA )

1 :- मुब्तला-:- 1. कष्ट या विपत्ति में पड़ा हुआ; दुख, संकट आदि से ग्रस्त . आसक्त; मुग्ध
3 - मुख़ातिब - जिससे कुछ कहा जाए, संबोध्य। 
4 - जानिब :- तरफ़, ओर, दिशा।








टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
Izhar सर इन मजदूरों का दर्द समझने वाला कोई नहीं है।
हमारे देश के नेता इनकी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करते हैं और सरकार सिर्फ बाहर से बड़े बड़े अमीर लोगों के बच्चों को लाने के लिए बस, हवाई जहाज ,ट्रेन सब चीजें चलाती हैं कर्फ्यू पास आराम से जारी कर दिया जाता है। गरीब मजदूरों को पुलिस के डंडे खाने के लिए और भूखे मरने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता।
writer delhi wala ने कहा…
में विचार सरहनिये हैं। आपकी बात से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ सरकार चाहें जितना दिखावा कर ले पर पब्लिक हैं सब जानती हैं इनसे कुछ नहीं छुपता।
Hem ने कहा…
राहु केतु सत्ता संभाले हैं समझ लो । देश की जितनी बर्बादी हो जाये कम है ।
writer delhi wala ने कहा…
sahi kaha aapne par kuchh log public ke uper jada havi hein jiski wajha se public ki aawaz ko daba diya jaata hein
writer delhi wala ने कहा…
jab tak public joor daar tarike se aawaaj nahi uthaayegi tab tak kuchh nahi hoga hemji

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