हसरत थी हज़रत बनने की, बईमान कहते हैं लोग।
हसरत थी हज़रत बनने की, बईमान कहते हैं लोग। हसरत थी हज़रत बनने की, बईमान कहते हैं लोग। मिजाज़ ही तो अपना सियासी था। वो कहते हैं, मेरी खुआइश में कोई दम नहीं। ये आदम जात क्या जाने बाज़ुओ में अभी दम हैं बोहोत। मिलना था सियासत में उनको।ये उनका गुनाह न था। उनको कहा पता था, सियासत धोखा ही होता हैं। वो कहते थे,तुम स्याह हो, हम कहते थे स्याह तो कानह भी था. मगर मोहब्बत का पुजारी था। वो न मानी, हम मुस्कुराये, उन्होंने नज़रो को चुरा लिया। एसा क्या था, किया माफ़ और दिल निकल रख दिया। हें अब उस चौराहें नाम इज़हार। लेखक इज़हार आलम (writerdelhiwala)