"जीवन बिन तेरे नहीं " "Life without you"


लेखक 
इज़हार आलम 
( writerdelhiwala)
5 June Environment Day

जीवन बिन तेरे नहीं 

गॉड इज़ आलमाइटी 

"पेड़ की भूमिका"
(“चलिए हम आपको लेख पढ़ने से पहले। इसकी भूमिका के बारे में थोड़ा समझा देते हैं।आप इसको नाटक/कहानी/वार्तालाप/लेख जो भी कहे पर हर शब्द उनकी ज़ुबानी। इस लेख को बयान किरदार करते हैं.और हम यानि “इज़हार आलम” अपनी कलम से लिखते हैं। किरदार हमारे घर के सामने वाला पेड़ हैं। इस पेड़ के पत्तों के साथ साथ-साथ इस रहने वाले परिंदे। जो घोंसला बना कर इस पेड़ रहते हैं। पेड़ के क़िरदार या पात्र कहें सब पर्यावरण के मित्र हैं। जैसे - पेड़ के पत्तों में से पहला किरदार “हसमुख और दूसरा- “दोमुख” इसी तरह और भी नाम हैं इस पेड़ के पत्तों के। “चील आंटी” (जिनका बड़ा सा घोसला बना हैं इस पेड़ पर), “तोते मियाँ”,गुररिया”(छोटी चिड़िया जो लुप्त हो गई), “कोयल” ओर बोहोत सारे परिंदे जो इस पेड़ पर रोज़ सुबह आ कर बैठ जाते हैं और बतियाते हैं । इनकी जुबानी आपके लिए।” )
"जीवन बिन तेरे नहीं "

"आज रंग हैं री माँ आज रंग हैं माँ।  
आज रंग हैं री माँ रंग हे माँ आज मेहबूब के यहाँ रंग हैं री माँ "। 


    "ये पंक्तिया आज के हिसाब से बिलकुल सही बैठती हैं आज यानि ५ जून पर्यावरण दिवस। आज बोहोत शोर  मचेगा मीम भी बनेंगे। भावुक सन्देश भी लिखे जायेंगे". कोक स्टूडियो के इस गाने  को गन गुनते हुए 'सनमुख पत्ता' झूम रहा था और सोच रहा था। 
        लोगो के इन्सटाग्राम फेसबुक, ट्विटर, स्नैपचेट ,और वाट्सअप जैसे प्लेटफॉर्म पर खूब फोटो सन्देश देखने को मिल रहे हैं। और मिलेंगे भी एक दो दिनों तक. फिर वही हॉल होगा जैसे वेलेंटाइन डे का या मदर्स डे का या और किसी फेस्टिवल का होता हैं जब हैं तो खूब याद किया जब गया तो. इसके बाद लोग कोरोना से जीतने में लग जायेंगे जिंदगी को पटरी पर लेन में जुट जायेंगे और वो सब भूल जायेंगे के नेचर भी कुछ हैं कुछ टाइम वो भी मांगता हैं। उसको भी जीने का हॉक हैं। हां जीने का हक़ , कैसा जीने का  हक़ हैं ये तो हमारे लिए बना हैं हमको जीना हैं इसके साये तले।  हम क्या हैं  अपने आप ही सब ठीक कर लेता  हैं।  फलां फलाना।  मगर हम भूलजाते हैं के इस दुनिआ में संसार में जो भी हैं वो नेचर से ही बना हैं चाहे इंसान ही किउ न हो।  पेड़ पौधो  ही नेचर नहीं हैं हमारा पूरा जीवन ही नेचर हैं जब से हम दुनिआ में आये और जब तक हम दुनिया से जायेंगे।  ये समझाना बोहोत मुश्किल भी नहीं के नेचर क्या हैं  सब को पता हैं पर क्या इनकी जुबानी सुनी हैं आपने। अरे भाई इनकी जिनके साईं मेंहम धुप में खड़े हो कर उसकोदुआएँ देतेहैं।  यानि पेड़ जी है हम आपको इनकी जुबानी  सुनाना चाहते हैं ताकि आप इनका दर्द इनकी पीड़ा को और इनकी खुशिओ को महसूस कर सके। 
मेरे पुरे ब्लॉक में सिर्फ और सिर्फ इनकी ही जुबानी हैं 


सुबह सुबह सूरज की पहेली किरणों के निकलने से पहले पहल सभी पंछी पेड़ पर आ कर बेठ चुके थे। आज वो भी थे जो कभी कभी आया करते थे. और वो भी थे जो कभी नहीं आते थे. नए मेहमान थे। छोटे बड़े पंछी नए पत्ते और पास की पौधो में नए फूल भी खिले थे। खिले क्यूँ न आज तो उनका अपना दिन हैं. जिसको सेलिब्रेट करने सभी इखट्टा हुए है। यानि 5 जून पर्यावरण दिवस ऐसा मौसम ऐसी जलवायू जो इस वक़्त थमी हुई दुनियां से मिली हैं. ऐसी दुनियां कब मिली होगी। इसका किसी को पता नहीं। फिर कब मिलेगी इसका भी किसी को पता नहीं। न सुना हैं, पढ़ा हैं, ऐसा कभी हुआ भी नहीं, सायद। एकाएक हसमुख ने पेड़ो की घनी हरी भरी पत्तिओ के भींच से झाकते हुए कहा -"आज ख़ुशी का दिन हैं सभी को आज का दिन 5 जून पर्यावरण दिवस मुबारक हो आज से पहले सायद ही कभी इतना खुशगवार दिन गुजरा होगा आप सभी मेरे बुलाने पर आये में आपका एहसान मंद हूँ मेने सोचा क्यूँ न हम इस दिन को इंसानो से बेहतर मनाये  उनको  बताये के इस दिन हमे क्या चाहिए और हम क्या दे सकते हैं. सभी कुछ आज  हम बता दे. सायद कुछ  पढ़ कर ही सही संभल ले अपनी इस कुदरत के ख़ज़ाने को"। - चील आंटी ने वह हो रही आवाज़ों को अपनी एक जोदार आवाज़ से शांत कराया और कहा -
 " सभी शांत हो जाओ आप सभी इंसान नहीं हैं. आप इस इको सिस्टम का हिस्सा हैं इस पर्यावरण में आपका कुछ न कुछ योगदान हैं। आप पर्यावरण हैं. आप से जीवन हैं. आप भी ऐसा ही बर्ताव करेंगे तो आप में और इन इंसानो में क्या फ़र्क़ क्या होगा" -
  तोते न चील आंटी की बात को आगे बढ़ाया - "हम  सभी आज बोहोत खुश हैं दोस्तों हम आज उस दिन को देख रहे हैं। जिस दिन पर हमारे लाखो दोस्त पेड़ पौधे भेट चढ़ गए हैंजब कभी इंसान जमीन पर सेकड़ो लाखो पेड़ लगते हैं पर उनकी देखभाल नहीं करते। पर आज सायद ही यहाँ कोई पेड़ लगा हो।  पर जो पेड़ लगे हैं इनकी हिफाज़त  इंसानो को पहले ही करनी चाहियें थी। सायद इनको इस कोरोना ने कुछ सोचने का मौका दिया हो। के अभी भी वक़्त हैं इस अकल का सही इस्तेमाल करने का. अपनी नहीं। अपने बच्चो के भविषय के बारे में सही नीतिया बनाने की। ताकि इस सुधरे पर्यावरण को आगे न ख़राब करे"। तोता मियां कहे कर चील आंटी की तरफ देखने लगा। जो उसको घूर रही थी।   



        चील के कहने पर सभी हसमुख की तरफ मुखातिब हुए।  तो हसमुख ने चील की तरफ देख सर झुका कर शुक्रिया का इशारा किया। और सभी की तरफ देखा कर अपने दोस्त दोमुख और सोनमुख के कन्धो पर हाथ रख कर कहा 
  हसमुख -" कोरोना भी नेचर का बिगाड़ा हुआ रूप हैं। पेड़-पौधे , जीव-जंतु, के साथ-साथ पशु-पक्षीयों को भी इंसानो ने नहीं बख्शा। सभी के साथ छेड़ छाड़ की हैं. तभी ये हाल हो गया इंसानो का। पहले इंसान को कोई फर्क नहीं पड़ता था नेचर के ख़राब होने पर और न ही वो गंभीर हो कर नहीं सँभालते थे। अब उप्पेर वाले ने हमको इस वायरस की वजह से  री साइकल होने का मौका मिला हैं तो हमारा कर्तव्य हैं के हम दुबारा अपने मूल रूप में आकर इन इंसानो को संभालेंगे। साफ हवा साफ पानी की नदी के साथ हम को जो फलने-फूलने का मौका मिला हैं उन सभी को इंसानो को फायदा मिले।"  - गुर्राया  ने बीच में ही बोली  - " अगर इंसान हमारे घर न उजाड़ते तो सायद ही इंसानो पर ऐसी आफत आती। आज इंसान, इंसान का दुशमन हैं. पर उनकी दुश्मनी में हम सभी पीस रहे हैं".

      सभी चुप हो गए। एक दूसरे को देखने लगे तभी नए आये मेहमानो में एक हुदहुद ने अपना परिचय दिया -" आज का दिन आप सभी को मुबारक। मैं हुदहुद फैमली से ( गुलबजान) आप सभी को मुबारक बाद देती हूँ आज हम सब इस फेस्टीवल को मानाने यहाँ इखट्टा हुए हैं आज के इस दिन को हमारे यहाँ सबसे बड़ा मोहत्सव के रूप में मनाया जाता हैं हम सभी इस दिन के लिए बड़ा इंतज़ार करते हैं क्यूँ की आज ही के दिन इंसान हमारे ज्यादा नजदीक होता हैं. हमारा ख्याल बड़े चाओ से करता  हैं. वो अलग बात हैं के कुछ नेता या लालची लोग इस दिन का भी फायदा उठा कर इस दिन का फयदा अपने मुफीद केलिए करते हैं और कुछ हमारे नाम पर पैसा इखट्टा कर लेते हैं और फिर आपको भी पता हैं ... में जहा से आई हूँ वहा अब पेड़ कम बचे हैं. मैं पुराने क़िले के पास जहा सेकड़ो सालो से सड़क के बीच में लगे घने पेड़ो पर हम रहते थे। पर इन इंसानो ने अपने मुफीद के लिए  उन सभी घने बड़े और मज़बूत पेड़ो को काट दिए हम जब से दर दर भटक रहे हैं पर हमको अभी तक सही ठिकाना नहीं मिला हमारे साथ सेकड़ो प्रजातिया थी वह पर सभी उजाड़ दी गई हैं। एक तो उस पेड़ को कटा जिस पर मेरी फमली थी 4 छोटे बच्चे थे जो उड़ने के लायक नहीं थे। मैं उनमें से सिर्फ १ ही को बचा सकी"- और ये कहकर वो रोने लगी. उसके रोने पर पास बैठे उसके और साथिओ के साथ सभी ने नम आँखों से उसको दिलासा दिया। इसी बीच एक और परिंदा जो वक़्त का मारा था उसने बोलना शुरू किया। - "में 'राम चिरैया' ( किंगफिश ) फैमली से आई हूँ. मेरा नाम 'सुनैना चिरैया' हैं। हम मुंबई के उस जंगल में रहते थे. जहा कई हजार पेड़ काट दिए गए थे. वो भी इंसानो के फायदे के लिए जहा मेट्रो का डिपो बनाया जाना था. ये वही जगह थी जहाँ हजारो की तादाद में काटे गए पेड़ो पर लाखो परिंदे बड़े आराम से रहते थे। हमको तो इको सिस्टम का हिसा थे। वहा सेकड़ो पंछी मारे गए सेकड़ो की तादाद में हम पंछी विस्थापित हो गए। सेकड़ो को अभी तक कोई मुफीद पेड़ नहीं मिला जिस पर अपना घर बना सके। हम यू तो लोगो की ज़बान पर होते हैं. उनके सामने फोटो पर होते हैं. पर उनको दिखाई नहीं पड़ते। क्यूँ ? पता हैं ?, वो इस लिए क्यूँ की इंसान अपनी आँखों से सिर्फ अपने फायदे की चीज़ को देखना पसंद करता हैं।अगर दिखाई भी दे जाये तो बेचारी या बेचारा कह कर आगे बाढ़ जाता हैं। अगर पेड़ नहीं होंगे तो हम कहा रहेंगे हमारा जीवन भी नष्ट हो जायेगा। इस ईको  सिस्टम का क्या होगा ये इंसान जी लेंगे ?" - ये कह कर वो खामोश हो गई। अब ख़ामोशी अपने चर्म पर थी। 


        अब बारी थी एक और नए मेहमान के बोलने की वो थी "बुल बुल" की - " दोस्तों में पहाड़ो से यहाँ आई हूँ मेरा नाम "सामरा बुलबुल" हैं।  हमारी प्रजाति भी इस वक़्त भरी मुसीबत में हैं। हम बोहोत ही शान और शौक़त से  वादिओं में रहते आये हैं हमारा अब उन जगहों पर रहना दुश्वार होता जा रहे।  वहा सड़को को चोड़ा करने का मंसूबा काम कर रहा हैं वहा कुछ हद तक चौड़ा भी हो गया हैं मगर अभी कुछ नेचर के चाहने वाले लोगो ने रुकवा रखा हैं पर कब तक रुकेगा। रोड चौड़ा करने के बहाने लाखो पेड़ काटे जा रहे मशीनों की आवाज उड़ती मिटटी और वहा शोर करने वाला ट्रेफिक। इंसानो का वह तक पोहो जाना जहा हमारे रेन बसेरा हुआ करते हैं. जंगल के बीच से सड़क का निकलना  . हमारी भी प्रजाति खतरे में हैं हमारे साथ साथ हज़ारो प्रजातिओ के भी लुप्त होने का अंदेशा हैं। लोगो की सैरगाह बनती जा रही हैं हमारे रहने की जगह।  लोगो का आना हमारे जीवन पर बुरा असर पड़ने लगा हैं। साथ ही पेड़ो की कटाई से पहाड़ो की मिटटी का कटना जारी हैं भूस्खलन के साथ बादलो का फटना आम बात हो चूकी हैं। जिसके कारण जलवायु परिवर्तन ज्यादा ख़तरनाक तरीके से हो चूका हैं जिसके करना हमारा जीना मुश्किल होता जा रहा हैं. हमारे बच्चों को सायद वो मौसम या वो पेड़ न मिल पाए जिनका अस्तित्व ही ख़तम होने के कगार पर हैं।"  
        
        इसी बीच एक और मेहमान जो पानी में अपनी जिंदगी ढूंढ़ते हैं उनका नुमाइंदा ने अपनी गर्दन ऊपर करते हुए कहा। "मैं उन सभी परजातिओ की तरफ से आया हूँ। जिनका जीवन पानी केसाथ साथ जमीन पर निर्भर हैं। पानी में खाना जमीं झाड़िओ में रहना सभी। मैं  "हंस" हूँ।  मेरा नाम पवन हंस हैं। हमारा जीवन आप सभी की माफिक पेड़ो पर कम पर बिना पेड़ो के भी नहीं रहा जाता।  जब हम पलायन करते हैं तो पेड़ो का ही सहारा रहता हैं।  हम पानी में अपना खाना जीवन की रूप रेखा सभी तैयार करते हैं। इस जलवायु ने हमारा जीवन दुस्वार कर दिया हैं। हम भी  इको सिस्टम का एक बेहतरीन साझेदार हैं हम उस पानी में रहते हैं जिसको इंसानो ने इस हद तक ख़राब कर दिया हैं जिसका नुक्सान पूरी इंसान प्रजाति को जल्द उठाना पड सकता हैं या पद रहा हैं। हमारे यहाँ यमुना ,गंगा ,झेलम.चनाब, काली नदी. नर्मदा  बरह्मपुत्र नदी सिंधु नदी जैसी विशाल नदिया हैं जिन पर सारा इको सिस्टम चलता हैं पर अब ये सभी नदियां अपने उस ख़राब दौर से गुजर रही हैं जिसका सायद इन्होने गुमान भी न किया हो। इसके साथ हमारे रहने के लिए सरदार सरोवर बांध, टिहरी, भाखड़ा, हिराकुंड, नागार्जुन सागर बांध जैसे अनेको बांध हैं, पर उनमें हमारे लिए रहना दुश्वार हैं वहा सन  साधन नहीं, खाने को खाना नहीं। क्या करेंगे हम कहा जायेंगे हम। यहाँ नदिओं में जीवन ख़त्म होता जा रहा हैं ऑक्सीजन नहीं हैं जीवन नहीं तो हम खाएंगे क्या हमारे बच्चो पर इस जलवायु का बोहोत बुरा  असर पड़ रहा हैं। जीवन छोटा हो गया हैं। रंग बदलने लगा हैं. ये कहता कहता पावन हंस सर झुका कर पेरो में चला गया और पवन बेठ गया।" - 
    तभी नए उगे सुर्खहरे पत्ते न शांति तोड़ते हुए कहा - "अगर सभी इंसान उस ललन के पडोसी की तरह होते तो सायद ये दिन न देखन पढ़ते। पर्यावरण का मतलब पेड़ लगाना नहीं हैं पेडो के साथ पुरे एक सिस्टम की देखभाल हैं जिसको हम और इंसान सब भूलते जा रहे। मेरा जन्म कुछ हफ्तों पहले ही हुआ हैं में नया पत्ता हूँ इस दुनिया में. मेरे आने से पहले ही मुझे सभी कुछ पता हैं हमारे सिस्टम में ये जहर घुलता जा रहा हैं। हम पहले जैसे थे. अब नहीं हैं। इस बदलती जलवायुं के कारण। इंसानो के साथ साथ हम भी इस गन्दी जलवायु की दलदल में फसते जा रहे हैं  और आज इस मोड़ पर पहुंच गए हैं। जहा जहा इंसानो को सबक सिर्फ ये वायरस ही सीखा जा रहा हैं। कैसे कुदरत परेशान हो कर अपना सिस्टम को बेहतर करता हैं ये जीता जागता उद्धरण हैं. जबसे वायरस आया हैं तब से इंसान क़ैद हैं अपने घरो में. सब बंद हैं. पर जिसकी वजह से हवा में जहर नहीं सड़को पर गाड़िओ का शोर नहीं। हवा में घुलता जेह्रीला धुआं नहीं। नदिओं में फैक्टिरिओ का ज़हरीला पानी नहीं। सिस्टम एक बार रीसाइकल होने लगा हैं। अब हवा भी बेहतर हैं पानी भी बगतर हैं खाना भी बेहतर हैं। नदिओं में मछलिओं का जीवन भी बेहतर हो गया ऑक्सीजन पहले से ज्यादा साफ़ हो गई और कुदरत  ने अपना  काम किया। साथ ही बारिश ने सब साफ  कर दिया तभी तो 300 किलोमीटर से हिमालय दिखाई पड़ गया। तभी तो जानवर बेख़ौफ़ जंगलो से सड़को पर और फिर जगलो में सेर सपाट कर सके हैं।  
    इंसान अब भी नहीं जागा तो सायद फिर मौका न मिले। अब इंसान को जैसा नेचर्स सिस्टम मिल रहा हैं या वो कुदरती बन गया हैं. उसको संभालकर रखना चाहिए इंसान को। कुदरत फिर कभी माफ़ भी नहीं करेगा। खरबो डॉलर खर्च करके भी ऐसा नेचर नहीं बन सकता था। इस वायरस ने कुछ लिया हैं तो कुछ दिया भी हैं"।
 - दोमुख ने उस नए  पत्ते की बात सुन तालिया  बजानी शुरू की दोमुख देख सभी ने एक दूसरे की तरफ देख मुस्कुराये और तालिया बजाने लगे। 
    अब सूरज की लालिमा भी निकलने को बे करार थी। सभी ने एक बार फिर पर्यावरण दिवस की शुभ कामनाए दी और झूमकर ललन के यहाँ बज रहे गाने पर नाचने गाने लगे।नीचे से ललन के पडोसी ने पानी के पाइप से पानी की बौछार कर सभी को नहलाने लगे थे। साथ ही गाना भी गुन गुना रहा था ललन का पडोसी । 
लेखक 
इज़हार आलम 
( writerdelhiwala)





पेड़ो पर मेरी कविता 

"जीवन बिन तेरे नहीं "

जहाँ जीवन की सुबह हम जाने। जहाँ हरा भरा जीवन मेरा।
जहाँ रंग बिरंगी सुबह हैं। 
जहा बदलो की घटा हैं।
जहा मचलती फ़िज़ा हैं। 
जहाँ सुबहो का संगीत हैं। 
जहाँ लहराती हवा हैं। जहाँ बूंदों की टप-टप हैं । 
जहा शाम का संगीत हैं । 
 जहाँ हरे हरे, पिले पिले रंग बिरंगे पत्ते हैं । 
जहाँ फूलो की महक, 
जहाँ चन्दन की महक  
जहाँ जीवन की सुबह हम जाने। जहाँ हरा भरा जीवन मेरा।
जहाँ बुलबुल की चहक हैं। 
जहाँ हवाओ में नृत्य करते पंछी हैं। 
जहाँ ऐसे पेड़ हैं ।
जहाँ जीवन की सुबह हम जाने।  जहाँ हरा भरा जीवन मेरा।
जहाँ मिलेगा जीवन, जियेगा जीवन
जहाँ जीना हैं । 
हम जाये वहां। 
जहाँ इस डाल कूदू, उस डाल कूदू ।  
इस कलि को छू लूँ,  उस कलि को देखूं। 
इस फूल की महक , उस फूल की महक 
जहाँ जीवन की सुबह जीवन जाने। जहा हरा भरा जीवन मेरा। 
चलो यू  चले उस संसार में जहा हो पंछिओं का घर। 
लो छो लिया तुमको! अब ! 
पंछी बन मैं  गगन में उड़ा  जाता हूँ। 
उस संसार में चला जाता हूँ। 
मन में ख़ुशी लिए मैं चाहा कर 
उड़ता जाऊं मैं गगन में उन पंछीओ के साथ जो प्रवासी हैं.
 आते जाते छू लेते हैं
मेरे मन को । 
जैसे सुबह की लाली छुए जीवन को। 
 जहाँ जीवन की सुबह हम जाने।  जहाँ हरा भरा जीवन मेरा।
 
लेखक 
इज़हार आलम 
( writerdelhiwala)

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