आज फिर से ख़ामोशी हैं,

आज फिर से ख़ामोशी हैं


ज फिर से ख़ामोशी हैं, आज फिर से कोई रोया हैं। 
देखो तो सही कही कोई इंसा भूखा सोया हैं। 
तुम भी जाओ, वो भी जाएँ, देखो कोई रह न जाये, सब जाएँ। 
देखना हैं मुझको, इस खामोशी में कोई दफन तो नहीं।   
वास्ता पूछते हो मेरा उससे, देखो तो सही खुद अपना भी पता मालूम नहीं। 
खुद चले हो दीवाना होने के लिए, और कहते हो तुम दीवाने हो। 
ज़रा संभलना, कही उस घर की मिटटी में कुछ अपनी सी खुशबू तो नहीं।  
न जाने बदलो में कोन सी गुफ़्तगू हुई, बारिश के बीच भी एक होड़ सी हुई।
में रोकता रह गया, मेरा ही घर सेहर में था, वही बारिश हुई। 
अब टूटे घर में पानी, पानी हैं.
जब उसने पूछा, कोई यहाँ दफ़न तो नहीं। 
ख़ामोश रहता तो सायद आज में भी खुशगवार होता। 
किसी ने मुझे चढ़ा कर अपना मुफीद सीधा कर लिया। . 
इस ख़ामोशी का अंदाजा कही यूं ही तो नहीं।  
कही मैं,मैं न रहूं, कही तुम तू न रहों । 


लेखक 
इज़हार आलम देहलवी 
writerdelhiwala.com 

हम गरीब तो न थे पर गरीब से कुछ कम न थे , जब पूछा, कैसे। 
तो मुस्कुरा दिए, न कुछ बोले न कुछ कहा, बस लिए झोला उठाए और चल दिए। 

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